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रसखान के सवैये अर्थ सहित – Raskhan Ke Savaiye in Hindi With Meaning Class 9- Study Gyan

रसखान के सवैये अर्थ सहित – Raskhan Ke Savaiye in Hindiरसखान के सवैये अर्थ सहित – Raskhan Ke Savaiye in Hindi
रसखान के सवैये अर्थ सहित – Raskhan Ke Savaiye in Hindi


Class 9 Hindi Kshitij Chapter 11 Summary

रसखान के सवैये – Raskhan Ke Savaiye

Raskhan Biography in Hindi – रसखान का जीवन परिचय: रसखान एक कृष्ण भक्त मुस्लिम कवि थे। उनका जन्म 1548 के आसपास दिल्ली में हुआ था। उनकी मृत्यु सन 1628 के लगभग मानी जाती है। उनका मूल नाम सैयद इब्राहिम था। कवि रसखान भक्तिकाल की रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रमुख कवियों में से एक हैं। इतिहास में रसखान को ‘रस की खान’ कहा गया है। इनके काव्य में भक्ति व श्रृंगार रस, दोनों प्रधानता से मिलते हैं। रसखान कृष्ण-भक्त हैं और उनके सगुण और निर्गुण निराकार रूप दोनों के प्रति श्रद्धावनत हैं। उनके काव्य में श्रीकृष्ण के प्रति जो भक्ति-भावना अथवा प्रेम है, वह अत्यंत दुर्लभ है। वह अपनी रचनाओं में कृष्ण को प्रेम करते हैं और निरंतर उनके रूप-सौंदर्य, राधा-कृष्ण प्रेम, गोपी-कृष्ण प्रेम, उनकी बांसुरी, उनके कुण्डल, उनके नेत्रों का वर्णन करने में मग्न रहते हैं।

सुजान रसखान एवं प्रेमवाटिका उनकी मुख्य कृतियां हैं। उनकी रचनाओं का संग्रह रसखान रचनावली में मिलता है। कृष्ण-भक्त कवियों में इनका स्थान प्रमुख है। इन्होंने ब्रज भाषा का काफी सरस और मनोरम प्रयोग किया है, जिसमे कहीं भी शब्दाडम्बर नहीं दिखता है।

रसखान के सवैये का सारांश- Raskhan Ke Savaiye Explanation: रसखान द्वारा रचित सवैये में कृष्ण एवं उनकी लीला-भूमि वृन्दावन की प्रत्येक वस्तु के प्रति उनका लगाव प्रकट हुआ है। प्रथम सवैये में कवि कृष्ण के प्रति अपनी भक्ति का उदाहरण पेश करते हैं। उनका कहना है कि ईश्वर उन्हें चाहे मनुष्य बनाए या पशु-पक्षी या फिर पत्थर, इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। वो सिर्फ कृष्ण का साथ चाहते हैं। इस तरह हम रसखान के सवैयों में कृष्ण के प्रति अपार प्रेम तथा भक्ति-भाव को देख सकते हैं। अपने दूसरे सवैये में रसखान ने कृष्ण के ब्रज-प्रेम का वर्णन किया है। वे ब्रज के ख़ातिर संसार के सभी सुखों का त्याग कर सकते हैं।

गोपियों के कृष्ण के प्रति अतुलनीय प्रेम को रसखान जी ने अपने तीसरे सवैये में दर्शाया गया है, उन्हें श्री कृष्ण की हर वस्तु से प्रेम है। गोपियाँ स्वयं कृष्ण का रूप धारण कर लेना चाहती हैं, ताकि वो कभी उनसे जुदा ना हो सकें। अपने अंतिम सवैये में रसखान कृष्ण की मुरली की मधुर ध्वनि तथा गोपियों की विवशता का वर्णन करते हैं कि किस प्रकार गोपिया चाहकर भी कृष्ण को प्रेम किए बिना नहीं रह सकतीं।

रसखान के सवैये – Raskhan Ke Savaiye

(1)
मानुष हौं तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जौ पसु हौं तो कहा बस मेरो चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को जो कियो हरिछत्र पुरंदर धारन।
जौ खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदंब की डारन।

(2)
या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि नवौ निधि के सुख नंद की गाइ चराइ बिसारौं॥
रसखान कबौं इन आँखिन सौं, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक ए कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वारौं॥

(3)
मोरपखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरें पहिरौंगी।
ओढ़ि पितंबर लै लकुटी बन गोधन ग्वारनि संग फिरौंगी॥
भावतो वोहि मेरो रसखानि सों तेरे कहे सब स्वांग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी॥

(4)
काननि दै अँगुरी रहिबो जबहीं मुरली धुनि मंद बजैहै।
मोहनी तानन सों रसखानि अटा चढ़ि गोधन गैहै तौ गैहै॥
टरि कहौं सिगरे ब्रजलोगनि काल्हि कोऊ कितनो समुझैहै।
माइ री वा मुख की मुसकानि सम्हारी न जैहै, न जैहै, न जैहै॥

 रसखान के सवैये अर्थ सहित – Raskhan Ke Savaiye Summary

मानुष हौं तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जौ पसु हौं तो कहा बस मेरो चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को जो कियो हरिछत्र पुरंदर धारन।
जौ खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदंब की डारन।
रसखान के सवैये भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि रसखान के श्री कृष्ण एवं उनके गांव गोकुल-ब्रज के प्रति लगाव का वर्णन हुआ है। रसखान मानते हैं कि ब्रज के कण-कण में श्री कृष्ण बसे हुए हैं। इसी वजह से वे अपने प्रत्येक जन्म में ब्रज की धरती पर जन्म लेना चाहते हैं। अगर उनका जन्म मनुष्य के रूप में हो, तो वो गोकुल के ग्वालों के बीच में जन्म लेना चाहते हैं। पशु के रूप में जन्म लेने पर, वो गोकुल की गायों के साथ घूमना-फिरना चाहते हैं।

अगर वो पत्थर भी बनें, तो उसी गोवर्धन पर्वत का पत्थर बनना चाहते हैं, जिसे श्री कृष्ण ने इन्द्र के प्रकोप से गोकुलवासियों को बचाने के लिए अपनी उँगली पर उठाया था। अगर वो पक्षी भी बनें, तो वो यमुना के तट पर कदम्ब के पेड़ों में रहने वाले पक्षियों के साथ रहना चाहते हैं। इस प्रकार कवि चाहे कोई भी जन्म लें, वो रहना ब्रज की भूमि पर ही चाहते हैं।

रसखान के सवैये wiki status

या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि नवौ निधि के सुख नंद की गाइ चराइ बिसारौं॥
रसखान कबौं इन आँखिन सौं, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक ए कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वारौं॥
रसखान के सवैये भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि रसखान का भगवान श्री कृष्ण एवं उनसे जुड़ी वस्तुओं के प्रति बड़ा गहरा लगाव देखने को मिलता है। वे कृष्ण की लाठी और कंबल के लिए तीनों लोकों का राज-पाठ तक छोड़ने के लिए तैयार हैं। अगर उन्हें नन्द की गायों को चराने का मौका मिले, तो इसके लिए वो आठों सिद्धियों एवं नौ निधियों के सुख को भी त्याग सकते हैं। जब से कवि ने ब्रज के वनों, बगीचों, तालाबों इत्यादि को देखा है, वे इनसे दूर नहीं रह पा रहे हैं। जब से कवि ने करील की झाड़ियों और वन को देखा है, वो इनके ऊपर करोड़ों सोने के महल भी न्योछावर करने के लिए तैयार हैं।

मोरपखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरें पहिरौंगी।
ओढ़ि पितंबर लै लकुटी बन गोधन ग्वारनि संग फिरौंगी॥
भावतो वोहि मेरो रसखानि सों तेरे कहे सब स्वांग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी॥
रसखान के सवैये भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में रसखान ने कृष्ण से अपार प्रेम करने वाली गोपियों के बारे में बताया है, जो एक-दूसरे से बात करते हुए कह रही हैं कि वो कान्हा द्वारा उपयोग की जाने वाली वस्तुओं की मदद से कान्हा का रूप धारण कर सकती हैं। मगर, वो कृष्ण की मुरली को धारण नहीं करेंगी। यहाँ गोपियाँ कह रही हैं कि वे अपने सिर पर श्री कृष्ण की तरह मोरपंख से बना मुकुट पहन लेंगी। अपने गले में कुंज की माला भी पहन लेंगी। उनके सामान पीले वस्त्र पहन लेंगी और अपने हाथों में लाठी लेकर वन में ग्वालों के संग गायें चराएंगी।

गोपी कह रही है कि कृष्ण हमारे मन को बहुत भाते हैं, इसलिए मैं तुम्हारे कहने पर ये सब कर लूँगी। मगर, मुझे कृष्ण के होठों पर रखी हुई मुरली अपने होठों से लगाने के लिए मत बोलना, क्योंकि इसी मुरली की वजह से कृष्ण हमसे दूर हुए हैं। गोपियों को लगता है कि श्री कृष्ण मुरली से बहुत प्रेम करते हैं और उसे हमेशा अपने होठों से लगाए रहते हैं, इसीलिए वे मुरली को अपनी सौतन या सौत की तरह देखती हैं।

काननि दै अँगुरी रहिबो जबहीं मुरली धुनि मंद बजैहै।
मोहनी तानन सों रसखानि अटा चढ़ि गोधन गैहै तौ गैहै॥
टेरि कहौं सिगरे ब्रजलोगनि काल्हि कोऊ कितनो समुझैहै।
माइ री वा मुख की मुसकानि सम्हारी न जैहै, न जैहै, न जैहै॥
रसखान के सवैये भावार्थ :- रसखान ने इन पंक्तियों में गोपियों के कृष्ण प्रेम का वर्णन किया है, वो चाहकर भी कृष्ण को अपने दिलो-दिमाग से निकल नहीं सकती हैं। इसीलिए वे कह रही हैं कि जब कृष्ण अपनी मुरली बजाएंगे, तो वो उससे निकलने वाली मधुर ध्वनि को नहीं सुनेंगी। वो सभी अपने कानों पर हाथ रख लेंगी। उनका मानना है कि भले ही, कृष्ण किसी महल पर चढ़ कर, अपनी मुरली की मधुर तान क्यों न बजायें और गीत ही क्यों न गाएं, जब तक वो उसे नहीं सुनेंगी, तब तक उन पर मधुर तानों का कोई असर नहीं होने वाला।

लेकिन अगर गलती से भी मुरली की मधुर ध्वनि उनके कानों में चली गई, तो फिर हम अपने वश में नहीं रह पाएंगी। फिर चाहे हमें कोई कितना भी समझाए, हम कुछ भी समझ नहीं पाएंगी। गोपियों के अनुसार, कृष्ण की मुस्कान इतनी प्यारी लगती है कि उसे देख कर कोई भी उनके वश में आए बिना नहीं रह सकता है। इसी कारणवश, गोपियाँ कह रही हैं कि श्री कृष्ण का मोहक मुख देख कर, उनसे ख़ुद को बिल्कुल भी संभाला नहीं जाएगा। वो सारी लाज-शर्म छोड़कर श्री कृष्ण की ओर खिंची चली जाएँगी।

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